स्वरुप Poem by C. P. Sharma

स्वरुप

Rating: 3.5

मै हूँ कौन?
ये मै नहीं जनता हूँ
मै खुद को ही नहीं पहचानता हूँ
भटकता हूँ अपना ही स्वरुप ढूंढने में
मै कठपुतलियों के संग जुड़ा हुआ हूँ

मै हूँ अजन्मा, अकाल, अमूरत
सर्वस्व संसार मेरी है सूरत
असंख्य ब्रह्माण्डों में मै हूँ
मोह माया का नहीं अँधेरा
सचिदानंद स्वरुप मेरा

कठपुतलियों का मै हूँ रचेता
मुझ से ही उनकी डोरी बंधी है
मै ही उनको नाचता रुलाता
झूठी शान में ये इतरा रहीं हैं

शक्लो-सूरत में जब अटक जाऊं
जन्म और मृत्यु पे मै लटक जाऊं
संकीर्ण बंधनो में बंध कर मै
खुद ही कटपुतली बना हुआ हूँ

शतरंज के मोहरों की तरह
कभी पीटता हूँ, कभी पिट रहा हूँ
गुरुज्ञान के आभाव में मै
घोर अंधकार में भटक हरा हूँ

स्वरुप
Monday, May 29, 2017
Topic(s) of this poem: self discovery
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C. P. Sharma

C. P. Sharma

Bissau, Rajasthan
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