कुन्दालिनी कमल Poem by C. P. Sharma

कुन्दालिनी कमल

कुन्दालिनी कमल

मन विनोद, उत्सव अाल्हादित
नित नव उत्सव उपजे बिनशसे
परमानन्द से चुम्बन न हो;
शांत ह्रदय सनातन आनन्द बहे

जीव द्वैत का अनन्य संगम
बीच ह्रदय और मनके डोले
व्याकुल जीव व्यथित भोंचक्का
कर प्रीत, विलोम की व्याख्या ढूँढ़े

सत्य, धवल कुमुद सम दीसे
प्रीत गुलाबी रंग में महके
जब जीवन में साम्य समावे
समिश्रित जीवन खिल उठे

कमल कुन्दालिनी खिले
अनहद नाद द्वारा खुले

कुन्दालिनी कमल
Thursday, November 30, 2017
Topic(s) of this poem: meditation
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C. P. Sharma

C. P. Sharma

Bissau, Rajasthan
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