अनजानी राहें Poem by Pushpa P Parjiea

अनजानी राहें

एक अनजान रह पर चल पड़े मुसाफिर
चलना था, बस चलना ही था इस राह पर

आगे क्या होने वाला है, ये पता नहीं था
अपने सब हैं साथ ख़ुशी थी इसकी काफी

अपनों से दूर हुआ तो सहसा कांप उठा
मन की धरती से आहों का संताप उठा

सुख दुःख किसे सुनायेगा ए पथिक बता
तेरी आँखों में तो भरे हैं अपनों के सपने

तेरे इस पथ पर आते ही उनके सपने पूर्ण हुए
पर मूक अनकहे तेरे अपने अरमा तो चूर्ण हुए

किसे पता सोने के पिंजरे में पंछी की आहों का
दिखता है तो एक मुखौटा झूठ मूठ की चाहों का

मन में दबी उदासी बाहर से नज़र नहीं आती
छुपे हुए आंसू और आहें भी नज़र नहीं आती

अरमा सबके पूर्ण हुए, है इसका संतोष मगर
दूर तलक tujhko अपनी मंज़िल नज़र नहीं आती

Saturday, June 24, 2017
Topic(s) of this poem: abc
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success