कौड़ी से भी जान यहाँ पे सस्ती है Poem by NADIR HASNAIN

कौड़ी से भी जान यहाँ पे सस्ती है

कौड़ी से भी जान यहाँ पे सस्ती है
चारों तरफ़ सुनसान फ़िज़ा और पस्ती है
कोई ना खेबनहार भंवर में नैया का
घेरे हुआ तूफ़ान हमारी कश्ती है


बेबस और लाचार सताए जाते हैं
नफ़रत के बाज़ार सजाए जाते हैं
आया हर इनसान सियासत की ज़द में
खुशिओं से अनजान हमारी बस्ती है

सच्चाई सच बोलने वाला डरता है
फ़सल उगाने वाला भूका मरता है
देखा जब इन्साफ की देवी है अंधी
मासूमों की रूह हवा में हंसती है

: नादिर हसनैन

Sunday, July 23, 2017
Topic(s) of this poem: messages,sad,scare
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 23 July 2017

आज के हालात की सही निशानदेही करता है यह गीत. अद्वितीय रचना. Thanks.

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