कौड़ी से भी जान यहाँ पे सस्ती है
चारों तरफ़ सुनसान फ़िज़ा और पस्ती है
कोई ना खेबनहार भंवर में नैया का
घेरे हुआ तूफ़ान हमारी कश्ती है
बेबस और लाचार सताए जाते हैं
नफ़रत के बाज़ार सजाए जाते हैं
आया हर इनसान सियासत की ज़द में
खुशिओं से अनजान हमारी बस्ती है
सच्चाई सच बोलने वाला डरता है
फ़सल उगाने वाला भूका मरता है
देखा जब इन्साफ की देवी है अंधी
मासूमों की रूह हवा में हंसती है
: नादिर हसनैन
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आज के हालात की सही निशानदेही करता है यह गीत. अद्वितीय रचना. Thanks.