सपनों के पिटारे, सँगालकर दिलों में,
भटकरहें थें अबतक, उम्मिदों के नीव पे।
ना उम्मिद खोया हम ने, ना आशाओं को मरने दी
प्यासें रहकर भी पेढ से, पत्तें ना गिरने दी ।।
सूखना टूटना और गीरना, जब उसको राज अायी,
दर्द तो हमें भी हुवाथा, तब कुछ कुछ समझ् अायी।
चलते चलते राहों पर, मन्जिल ही खो गयी,
बख्त सोचने कि कहाँं, जिन्दगी की ही हो गयी ।।
(14 july 2017)
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem