द्वैत भ्रम Poem by C. P. Sharma

द्वैत भ्रम

द्वैत भ्रम

भारी भीड़ भरी दुनियां में
मैं खुद को ही ढूँढ रहा हूँ!
बिन आपणे, सब कुछ दीसे
'द्वैत' भरम में भटक रहा हूँ! ! !

भरम, भावना, भय भटकावे
स्वै-विस्तार समझ न आवे
काल चक्र आखेट बनावे
जन्म-मृत्यु मे चक्कर खावे! ! !

अपनी ही परछाइन्यों को मैं
कोई दूसरा समझ रहा हूँ
स्वै-ज्ञान के ही अभाव में
मैं खुद को ही नोच रहा हूँ! ! !

द्वैत भ्रम
Friday, September 22, 2017
Topic(s) of this poem: duality
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C. P. Sharma

C. P. Sharma

Bissau, Rajasthan
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