चलपड़ेथे कई विचारों के मंथन संग,
बहगए थे अनजानएक बहाव सेहम
न आसमा दिख रहा न ज़मीं दिख रही थी
न ही एहसास कोई न ही मन में कमी थी
एक सूनापन छागया सब और था
तबयारो थे किंकर्तव्य विमूढ़ से हम
क्या होता होगा सबके संग ऐसा कभी?
सोच सोच अब भीघबरासे गए हम
फिर भी कैसी थी शक्ति व कैसी पिपासा
ज्ञान के चक्षुओं में आस की एक लौ थी
वो सपने सुनहरे भविष्य के हमने.
किस आस पर किस सहारे पे देखे
वो शक्ति वो प्रेरणा आपकी थी
एक हारे हुए मन का बल आपसे था
ओ कान्हा! जब जब मानव मनहारा
तब तब तुमने भरा जोश व दिया सहारा
इन चक्षुओं की प्यास बन तुम आ गये
ग़म के मारों के ग़म सभी पिघला गये
टूटा था मन मेरा जोड़ दिया कान्हा
आशा की इक ज्योत जला दी न,
कियामानव मन को कभी निराश
तुमने काटा जीवन से नैराश्य वैराग्य
रक्षण करते भक्तों का बंशी बजैया
सकल विश्व में पूर्ण पुरुषोत्तम
इक तुम ही तो हो मेरे कृष्ण कन्हैया! !
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जीवन की अस्थिरता में तथा मुश्किलों में जब मनुष्य को कोई रास्ता नहीं सूझता तो वह अपने आराध्य देव की शरण में आता है. इस कविता में इसी परिदृश्य का वर्णन है तथा समाधान भी सुझाया गया है. अतिसुन्दर.
Thank you bhai...
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