मानवता का धर्म Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

मानवता का धर्म

मानवता का धर्म

हर चीज का एक वक्त है
आदमी और औरत मुक्त है
कोन कैसा सम्बन्ध रखना चाहता है!
वो निजी मामला है।

संबंध एक अटूटडोर है
पर ज्यादा शोर होता है
कई लोग उसमे विघ्न डाल रहे है
ऐसा करकेरिश्ते कीतोहिन कर रहे है।

उसमे दरार तब आती है
जब शर्ते रखी जाती है
उसको रिश्ता नहीं कहते है
बस एक कामचलाऊ सम्बन्ध होता है।

रिस्ते का सन्मान करना चाहिए
बाप बेटे, लड़की और माँ में एक अलग तरह की चाह है
आप का किसो के साथ जुड़ जाना एक महज संयोग है
या यूँ कहे की, एक योग है।

रिश्तो को बनाए रखे
उसका निरंतर स्वाद चखे
उसमे मधुरता है
अपनी एक मर्यादाहै।

मज़बूरी का यहाँ कोई स्थान नहीं
जो नहीं मानता उसका कोई विधान नहीं
हम सब एक ही रिश्ते से बंधे है
मानवता का धर्म सब से ऊपर है।

मानवता का धर्म
Thursday, January 11, 2018
Topic(s) of this poem: poem
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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