उम्र सत्तर की Poem by vijay gupta

उम्र सत्तर की

Rating: 5.0

उम्र सत्तर की

उम्र सत्तर की,
जीना दुश्वार है।
डॉक्टर जल्लाद,
बीवी थानेदार।
पोती जासूस,
बहू चुप्पी साधे मददगार है।
पाबंदियों का अंबार,
बीमारियों की फेहरिस्त,
दवाइयों का खजाना,
तिरस्कार जिनका हम सफर है।
था एक जमाना इनका भी,
जब सब सलाम ठोकते थे।
समय क्या बदला,
इनके सलाम की किसी को कोई दरकार नहीं।
उम्र सत्तर की,
जीना दुश्वार है।
कोई सरोकार नहीं किसी को इनसे,
क्योंकि यह अब मददगार नहीं मदद के तलबगार हैं।
था एक जमाना वो भी
इनके मुंह से निकले एक शब्द पर भी बेवजह लोग तालियां बजाते थे।
यह भी सच है कि
ऐसा समय हर किसी की जिंदगी में आता है।
फिर भी न जाने क्यों लोग
बुढ़ापे की कद्र नहीं करते।
"From the diary of an old man"

Thursday, March 29, 2018
Topic(s) of this poem: old age
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 29 March 2018

An amazing poem is brilliantly penned from the experience of old age...10

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vijay gupta

vijay gupta

meerut, india
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