उम्र सत्तर की
उम्र सत्तर की,
जीना दुश्वार है।
डॉक्टर जल्लाद,
बीवी थानेदार।
पोती जासूस,
बहू चुप्पी साधे मददगार है।
पाबंदियों का अंबार,
बीमारियों की फेहरिस्त,
दवाइयों का खजाना,
तिरस्कार जिनका हम सफर है।
था एक जमाना इनका भी,
जब सब सलाम ठोकते थे।
समय क्या बदला,
इनके सलाम की किसी को कोई दरकार नहीं।
उम्र सत्तर की,
जीना दुश्वार है।
कोई सरोकार नहीं किसी को इनसे,
क्योंकि यह अब मददगार नहीं मदद के तलबगार हैं।
था एक जमाना वो भी
इनके मुंह से निकले एक शब्द पर भी बेवजह लोग तालियां बजाते थे।
यह भी सच है कि
ऐसा समय हर किसी की जिंदगी में आता है।
फिर भी न जाने क्यों लोग
बुढ़ापे की कद्र नहीं करते।
"From the diary of an old man"
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An amazing poem is brilliantly penned from the experience of old age...10