ग़ज़ल Poem by Jagdish Singh Ramana

ग़ज़ल

Rating: 5.0

मैं मगज़दारी से कोह सो दूर नफ़र।
मैं हूँ मेडीमेरा न कोई क़ुसूर नफ़र।

हँसते हँसते राह-ए-हक़ पे चलते हैं
ख़ुदाई दिल में, ख़ुदा से बेज़ूर नफ़र।

दीन-दुनिया और नस्लों की बात बहुत
आदमज़ात ज़ार-ज़ार चूरचूर नफ़र।

काश्ते-नफ़रत सहरा में भी ख़ूब पली
दरीग़ इश्क़ कहाँ, है आदमख़ूर नफ़र।

तपिश चौतरफ़ राहत मिले तो कहाँ
बाराने इश्क़ कहाँ, कहाँ अब्रे नूर नफ़र।

क़िस्सा-ए-आहू चश्म छिड़ता बारहा
दिलदार क़िस्सागोई में मख़मूर नफ़र।

अंदर की बात बता ए बीख़बर ख़ुशदिल
बेहिस बेपरवाह या कैफ़ओसुरूर नफ़र।

Sunday, December 20, 2020
Topic(s) of this poem: hate,hermit,love,poetry,politics,world
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
*तू ज़िंदादिली से कोह सो दूर नफ़र।*
•बेज़ूर(बेज़ार का फ़ारसी लहजा-ऊबा हुआ, अप्रसन्न)•आदमख़ूर(आदमख़ोर) • नफ़र(आदमी)•दरीग़(अफ़सोस)
COMMENTS OF THE POEM
Varsha M 20 December 2020

बहुत खूब रचना परसि में. नफर को सीखना ज़रूरी है हर राह पे और हर मोड़ में. धन्यवाद्.

2 0 Reply
Jagdish Singh Ramána 24 December 2020

I'm really thankful to you, Mam for your feedback. But there is a problem with the new PH format. The comment section doesn't support The Nāgri font or like. Please could you transliterate your comment in Roman. Thank you.

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