चार ग़ज़लें सम्प्रेषण से (१.ये छाया ने क्या मात खायी है यारो, २.जलते हुए दिवस का अहसास ज़िन्दगी है, ३.लिखते थे आँखों देखी जो समाचार में, ४.मुर्दो से हैं ये इन्सां जिनको जगा रहे हैं,) Poem by Ved Mitra Shukla

चार ग़ज़लें सम्प्रेषण से (१.ये छाया ने क्या मात खायी है यारो, २.जलते हुए दिवस का अहसास ज़िन्दगी है, ३.लिखते थे आँखों देखी जो समाचार में, ४.मुर्दो से हैं ये इन्सां जिनको जगा रहे हैं,)

1.
ये छाया ने क्या मात खायी है यारो,
कड़ी धूप माथे पे छायी है यारो।

शहर उग रहे आजकल खेत में हैं,
खबर गाँव से आज आयी है यारो।

ये आँखो का पानी लगा सूखने है,
विकट आग किसने लगायी है यारो।

कोई है जो तूफां उठाये है बाहर,
औ भीतर तबाही मचायी है यारो।

ये बिजली की लाइन पे बैठी है चिड़िया,
शहर आ के खूब पछतायी है यारो।

2.
जलते हुए दिवस का अहसास ज़िन्दगी है,
वह शाम या सुबह हो कुछ खास ज़िन्दगी है।

पीछे जो मुड़के देखा मीठे दिनों की यादें,
ऐसा लगा कि जैसे मधुमास ज़िन्दगी है।

जिन्दा है या मरा है ये आदमी है कैसा?
हर पल जहन में उठता ये कयास ज़िन्दगी है।

पल-पल मैं मर रहा हूँ या उम्र बढ़ रही है,
कुछ तो बची है साँसें यह आस ज़िन्दगी है।

होनी थी हो गयी है, होगा वही जो होना,
फूलों के बीच भौरे की प्यास ज़िन्दगी है।

3.
लिखते थे आँखों देखी जो समाचार में,
अब कुछ नहीं है उनके भी अख्ति़यार में।

सारे शहर को लादे हर पीठ पे अपनी,
अखबार आ गया है देखो बजार में।

नुक्कड़ पे भूख-प्यास से फिर आदमी गिरा,
उलझे ही रहे लोग अपने कारोबार में।

खबरें न जानें कितनी ही नीलाम हो गयीं,
पिज्जा, बियर, औ बर्गर के इश्तिहार में।

तलवार को कलम से रहे काटते हैं जो,
वो फँस गये हैं देखिये धन के गुबार में।



4.
मुर्दो से हैं ये इन्सां जिनको जगा रहे हैं,
सूखा है सरोवर औ गोते लगा रहे हैं।

भूखे हैं चीथड़ों में, इन्सानियत है रोती,
खेतों में यूकेलिप्टस देखो उगा रहे हैं।

पूछेगा कौन अब तो कृषकों की खैरियत रे,
होरी को ताज होटल वाले भगा रहे हैं।

पढ़ने को नहीं पुस्तक है, बीज न बोने को,
नेता जी हुए विजयी गोले दगा रहे हैं। (साभार: संप्रेषण, अप्रैल-जून 2017)

Tuesday, May 22, 2018
Topic(s) of this poem: love and life
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