1. कविताई जो असल, ज़िंदगी जीकर जाना
भीड़ बहुत थी प्लेटफ़ॉर्म पर और उमस भी
ऐसे में यों लगा अधूरी ही रहने को
कविता जो कुछ बात बड़ी कहने वाली थी
एक पंक्ति के कारण बस आई ढहने को
एक्सप्रेस था नाम, धता गति को बतलाए
अक्सर करती देर, फँसा इसके चक्कर में
कहते-सुनते लोग-बाग दिखते झल्लाए
सोच रहे, जाने कब होंगे अपने घर में
कैसे बीते सफर सुरक्षित चिंता भारी
अनहोनी के अंदेशे से रंजीदे दिल
आखिर पहुँची रेल मची थी मारामारी
पहुँचे सारे, हम भी पहुंचे अपनी मंजिल
कविता तो रह गई अधूरी, पर यह माना
कविताई जो असल, ज़िंदगी जीकर जाना|
2. प्यार चाहिए जिनसे देखो, हैं उकताए
प्यार चाहिए जिनसे देखो, हैं उकताए
उनकी नफरत बिना वजह कब तक सह सकते
दोष कहें हम किसका, कोई तो समझाए
अपनेपन को नज़र लगी शायद कह सकते
ले डूबे सम्मान और सुख इक दूजे का
है मचने को कलह, देखिए आतुर तन-मन
बनने-तनने को दुखदायी खलनायक-सा
हाय निकलती बातों में से बात दनादन
निष्ठुर है जो हुआ वक्त कट पाए कैसे
भीतर-भीतर आँसू धारे विनती करता
ऐसे-वैसे, कैसे भी हो, चाहे जैसे
कोई आकर कष्ट हमारा कुछ तो हरता
आँखेँ सूनी पथराती आशाएं भीतर
लगता जैसे नरक यहीं है, अपना ही दर|
3. आभासी संसार लुभाए ज्यों खलनायक
सोने का वह हिरण रामजी ने मारा था
माँ सीता ही नहीं काल को भी बतलाया
आकर्षण है बड़ा छलावा करें किनारा
पर, सोने के हिरणों वाला युग फिर आया
एक नहीं अब स्वर्ण हिरणों की फ़ौज खड़ी है
मोहपाश से कोटि-कोटि करने को घायल
सोया है पुरुषार्थ हमारा जंग बड़ी है
जगना होगा समझ सकें जो हम यह छल-बल
आभासी दुनिया वाले मारीच अड़े हैं
भरमाए हैं, आओ, भीतर राम जगाएं
संभव समझो विजयी होना अगर लड़े हैं
रावण पर फिर विजय राम की आओ, गाएं
आभासी संसार लुभाए ज्यों खलनायक
लड़ने को तैयार रहें, हों खुद के नायक
4. सच पूछो, ये रावण हैं जो कविता हरते
कविताएँ कुछ कठिन हुईं इस बीच आजकल
जैसे पत्थर पड़े नदी में जस के तस हैं
वैसे ही कुछ शब्द, किया हो कवि ने ज्यों छल
अर्थ-भाव यों जटिल कि लगते पाठक ठस हैं
किस्म-किस्म के भाव मगर है इश्क नहीं बस
होने को आधुनिक तरसते, कुछ भी करते
तुलसी, मीरा, कबिरा, गालिब इनको नीरस
सच पूछो, ये रावण हैं जो कविता हरते
युद्ध ठूँस निर्वासन का हैं लेप लगाते
संघर्षों के बने सारथी शांति कहाँ है
आग बिना ही धुआँ-धुआँ कहकर चिल्लाते
खोज रहे हैं कथ्य वहाँ विध्वंस जहाँ है
जानबूझकर भूले निर्झर बहती कविता
प्यासे उसके जो भीतर ही रहती कविता|
- डॉ वेद मित्र शुक्ल, मो.9599798727, vedmitra.s@gmail.com
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