पांच ग़ज़लें
-डॉ. वेद मित्र शुक्ल
अंग्रेजी विभाग, राजधानी काॅलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110015
मोबः 09599798727; ईमेलः vedmitra.s@gmail.com
1.
तुलसी का एक चौरा, आँगन को ढूँढता हूँ,
पेड़ों पे झूलों वाले सावन को ढूँढता हूँ।
शहरों की हो चली है धरती तो आज देखो,
मिट्टी से अपनी यारो! बंधन को ढूँढता हूँ।
उलझे हुए हैं धागे अपनों के बीच के ही,
रिश्तों में देखिये मैं निजपन को ढूँढता हूँ।
कागज के फूलों वाले चेहरों की भीड़ में मैं,
शबनम से भीगी पंखुरी से मन को ढूँढता हूँ।
ये उम्र बीतने को हर लम्हा़, हर घड़ी है,
फिर से मैं अपने तो उस बचपन को ढूँढता हूँ।
2.
पहियों पे घूमता है ये शहर तो देखिए,
पीता है यहाँ आदमी जहर तो देखिए।
सड़कें हैं कंक्रीट की पत्थर से राहगीर,
हमने भी क्या चुनी है ये डगर तो देखिए।
उसने लगाये पोस्टर कुछ यों दिवार पे,
उसकी ही बह रही है अब लहर तो देखिए।
गाँवों की ओर आइये अब इक नज़र करें,
ये फाइलों में चल रही नहर तो देखिए।
इंसानियत हो या कि हो कुदरत जहान में,
ढाता है सदा आदमी कहर तो देखिए।
3.
कुछ यों कही ग़ज़ल कि देखो बाँसुरी हुई,
बजने लगी तो मन में मेरे माधुरी हुई।
वो थी तो रातरानी मगर आयी जब सुबह,
शबनम से भीग करके एक पाँखुरी हुई।
हर शेर इक ग़ज़ल का है जैसे जुगल किशोर,
कान्हा के होंठ, राधिका की आँगुरी हुई।
उसने कही थी बात सारी दिल से ही मगर,
मालूम नहीं कैसे किसकी वो बुरी हुई।
होती रही यूँ कोशिशें कि दूर रह सकूँ,
बरबस ही शायरी की मेरी वो धुरी हुई।
4.
जीने का बस एक चलन है,
बहती नदियों में जीवन है।
ठहरे पानी की किस्मत में -
बदबू, कीचड़ और सड़न है।
कैसी भी बह रही हवा हो,
महकाने को खिला सुमन है।
शाखों पर फूलों संग कांटें,
सुख-दुख का कैसा ये मिलन है?
साँपों के संग रह कर के भी,
चन्दन तो रहता चन्दन है।
5.
शाखों ने रंग उड़ेला है,
आयी वसन्त की बेला है।
लद गए शजर हैं फूलों से,
लग रहा आज ज्यों मेला है।
मौसम जब हुआ सुहाना, तो-
रह पाया कौन अकेला है।
खिलते पलाश औ सेमल हैं,
जश्न-ए-बहार अलबेला है।
यारो वसन्त की ड्योढ़ी पर-
रंगों का उमड़ा रेला है।
फसलें किसान की दमके हैं,
ज्यों छाया रंग सुनहला है।
(साभार: साहित्य अमृत, अप्रैल 2018)
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem