जिन्दगी दो-चार दिन की बस,
इसका क्या ठिकाना है;
आज जिससे मिल लिया,
हो सकता, फिर न मिलना है।
कई लोगों को देखा इस तरह,
जुदा होने वक्त थे मिलने आये;
बाद में यही समाचार मिला,
वे अपनी दुनिया थे लौट आये।
क्या पता, हम रहें न रहें,
काम कुछ ऐसा हो जाये;
और कुछ मिले न मिले,
मेरी मुहब्बत मुझसे मिल जाये।
क्या करुंगा और सब खातिर उपाधि लेकर,
आखिरी बस एक खिताब है;
बस मिल जाये मेरी मुहब्बत,
"नवीन"जीवन की बनी यही किताब है।
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