कुछ ख़ुद से कुछ वक़्त से ज़िन्दगी की हार जो समझे कोई
हर तरफ़ लगी इस आग में ठंडी पड़ी रूह जो समझे कोई
उम्मीदों की राख तले दफ़न ख्वाबों की लाश को समझे कोई
मुस्कुरा के जो दे गए कुछ दोस्त वो रिसते हुए ज़ख़्म जो समझे कोई
चेहरे पे झूठ की दमक में छुपे सच के दाग जो समझे कोई
हर रोज़ पिघलते जिस्म के अंदर पत्थर होता दिल जो समझे कोई
किस्से कहें क्या कहें कहने से भी होगा क्या
बहरों की महफ़िल में पीट नगाड़ा होगा क्या
वो कौन होते हैं जो ख़ामोशी समझें किसने देखे हैं वो लोग
दोस्त कहा करते थे जिनको नज़र चुराते हैं वो लोग
रूह की तन्हाई में जिस्म का बाज़ार ये कैसा सौदा जो समझे कोई
बातें भी अब रास नहीं आती शब्दों का खालीपन जो समझे कोई
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