सभी प्रज्ञानेत्र अवस्थित, निरुपाधिक चैतन्यरुप स्थित हैं।
चैतन्य ही जिसका नेत्र, व्यवहार कारण, प्रज्ञा लय, प्रज्ञा ब्रह्मस्वरुप हैं।।
प्रज्ञानस्वरुप परमात्मा जो जान लेता, प्रकृति पार हो जाता है।
परब्रह्म पुरुषोत्तम प्राप्त कर लेता, अपुनरावर्ती धाम प्राप्त करता है।।
प्रज्ञान ब्रह्म साथ रहता सव^दा, नित्य परमानंद विहार करता है।
अमृत लोक आनंदमय बनता, नित्य 'नवीन'विहार सुख पाता है।
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