A-009. क्या इसी को प्यार कहते हैं Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-009. क्या इसी को प्यार कहते हैं

क्या इसी को प्यार कहते हैं 8-7-15—6.45 AM

वो धक्कम धकेल
वो चूहों का खेल
वो गिलहरिओं का फुदकना
वो चिड़ियों का उड़ना

वो ठंडी हवायें
नाचे और नचाएं
वो कलियों का पुंगरना
वो फूलों का खिलना

खुशबू बिखेरती वो
फिजाओं में विचरणा
वो मोरों का नृत्य
पायलों का छनकना

वो रूठना और मनाना
उठकर भाग जाना
वो छुप कर देखना
वो छुप कर भी छुपाना

कभी चेहरे पर हया होनी
कभी आँखों का शर्माना
कभी गुस्से का इज़हार होना
कभी आँखों का लाल होना

कभी बारिश का होना
कभी सूखा मलाल होना
कभी बालों को लहराना
कभी जूड़ों में बाल होना

कभी चोटी को लहराना
कभी प्रान्दी को घुमाना
कभी झुक के आदाब करना
कभी अकड़ के दिखाना

कभी उँगलियाँ दिखाना
कभी उँगलियाँ फसाना
कभी पीछे हटाना
कभी पास बुलाना

कभी इंतज़ार करना
कभी इंतज़ार करवाना
कभी आंसूओं को बहाना
कभी गले से लग जाना

कभी रूठे को मनाना
कभी खुद मान जाना
कभी खुद से डर जाना
कभी दूसरों को डराना

कोई लाख पूछे
फिर भी न बताना
कभी कोई गीत गाना
कभी मन ही मन गुनगुनाना

क्या इसी को प्यार कहते हैं।
हाँ जी हाँ इसी को प्यार कहते हैं

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-009. क्या इसी को प्यार कहते हैं
Monday, May 23, 2016
Topic(s) of this poem: romantic
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