A-013. बन ठन के गोरी Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-013. बन ठन के गोरी

बन ठन के गोरी 23.7.16—6.42AM

बन ठन के गोरी नाचे है
नयनों में कजरा बाचे है

पग पैरों घुंघरू बाजे है
अलता उसपर साजे है

ता ता ताथैया नृत्य करे है
पावन अपना कृत्य करे है

पनघट के मोहन भी बोले है
राधा के नयन क्यों डोले है

नयन तीर चले बिंदास चले
चोली दामन संग साथ चले

कदम कदम का चुम्बन कर
एक भात चले बहु भात चले

आड़े तिरछे देखो मढ़त है
थिर थिरक कैसे भगत है

पाँव पटक जबरन करत है
औरे के बारी नाही सहत है

अँखियाँ नचत दिल लुभावे
चेहरा चमकत होश उड़ावे

होंठ ससुरे चुम्बन नाहीं देवे
लाली अधर अगन भड़कावे

सुराहीदार गर्दन होए नचिया
लट झुमका नाचे हो सखिया

गर्दन सोने का हार जड़त है
धड़के जिया सुनत बजत है

धौंकनी बन छाती जो धड़के
सजना का दिल क्यूँ न भड़के

बाँध कमरबंध जब जोर लगावे
धरती नाचे सगले जहान हिलावे

लचके कमर लचक बन आवे
पिया का मन भी तरसत जावे

कदम कदम पर चूमे पायलिया
थिरकत थिरक नाचे साजनिया

नग्न नयन मुद्रा का योग बढ़त है
अँखियाँ नचत अधिकार बढ़त है

नयन इशारे व नगारे भी बजत है
बदली चमके लिश्कारे सजत है

बरखा की बूँदें नाचे है गावे है
कभी बरसत है कभी डरावे है

कभी भागत है कभी भगावे है
चमक आवे चुपके से जावे है

यही जोग नारी सभों मन भावे
नारी सम्मान भी तभी मन आवे

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'pali'

A-013. बन ठन के गोरी
Sunday, July 24, 2016
Topic(s) of this poem: love and life,motivational,relationship
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