अपने ही न हुए अपने दूसरों से क्या शिकवा
किसको मैं कहूँ अपना किसको कहूँ मितवा
जिंदगी ही दे डाली अपनों को उनकी खातिर
समझता रहा समझदार खुद को बहुत शातिर
झुकी हैं निगाहें ढूँढ़ती हुई कुछ नई राहें
उँगलियाँ लगी ढूँढ़ती हैं कुछ नई दिशायें
अश्क कहने आये हैं एक गुजरी हुई दास्ताँ
हर इक पल गुजरा है बनाने में ये गुलिस्ताँ
हर कोई हक़ जताता है जताकर मुझे अपना
बाँहें खुली हैं मगर दिखता नहीं कोई अपना
कल तक जो अपने थे अब हुऐ क्यूँ पराये हैं
कल की हकीकत थी बन सपने संग आये हैं
कौन सी घड़ी है कब क्यूँ कहाँ चली जाती है
स्यानप भी धरी रह जाती है बुद्धि हार जाती है
चाहकर भी जानते हुए अन्जान बने जाते हैं
शिकायतों की आड़ में खुद ही जले जाते हैं
शिकायत किसी की भार खुद क्यों ढोये रे
छोड़ के देख अभी बड़ी अच्छी नींद सोये रे..... बड़ी अच्छी नींद सोये रे
Poet; Amrit Pal Singh Gogia
My blog; gogiaaps.blogspot.in
Face book; Attitude: Dreams Come True
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'स्यानप भी धरी रह जाती है बुद्धि हार जाती है'. बहुत बढ़िया उक्ति. पढ़ने का आनंद देने वाली एक बेहतरीन कविता. धन्यवाद.