A-042. अँधेरे को सूरज की रौशनी Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-042. अँधेरे को सूरज की रौशनी

अँधेरे को सूरज की रौशनी-8.8.15—10.06 AM

अँधेरे को सूरज की रौशनी रास आ गयी
रात खिसकी थी और थोड़ी पास आ गयी
समा ही गयी धीरे धीरे उसके आगोश में
ज़ज्ब हुई जाती थी फिर भी रही होश में

रात धीरे धीरे ज्यों ज्यों आगे बढ़ने लगी
सूरज की रौशनी भी थोड़ी चमकने लगी
हुआ जो मिलन वो गजब का नज़ारा था
छोटी सी नारंगी और आसमान सारा था

हमने आसमान को यूँ झुकते हुए देखा है
कहीं दूर समंदर पर पड़ी सुनहरी रेखा है
रेखा और समंदर के बीच मझधार पर
नन्हा सा सूरज बैठा सपना साकार कर

एक नई सुबह एक नई उम्मीद के संग
एक नन्ही सी किरन नयी रौशनी के संग
एक नया मंझर एक नए नज़ारे के संग
उठी है एक नई लहर नए नगारे के संग

सारा जहाँ बना एक एक रौशन नज़ारा है
समंदर की लहरों को मिला एक सहारा है
हर पल गिरती और हर फिर सम्हलती हैं
न है गिला न शिकवा न कोई किनारा है

जिंदगी हमारी भी यूँ ही मुकम्मल होती है
हर नया दिन और हर रात भी नई होती है
बिसरे विचारों को छोड़ आगे बढ़ के देख
मुकद्दर का इजहार नयी शुरुयात होती है ……नयी शुरुयात होती है

Poet; Amrit Pal Singh Gogia
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Saturday, February 27, 2016
Topic(s) of this poem: romantic
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