A-163 सच के चक्कर में Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-163 सच के चक्कर में

A-163 सच के चक्कर में 9.5.15


सच के चक्कर में सच और भी सच्चा हो गया
झूठ भी देख उसे अपनी जगह पक्का हो गया

ठन गयी दोनों में अब कुछ कर के दिखाने की
अपनी बात साबित कर के दूसरे को हराने की

सच बोला
मैं तो जहाँ भी जाता हूँ अकड़ के ही जाता हूँ
लोग सुनते भी हैं मुझे और मैं ही समझाता हूँ

झूठ बोला तो फँस जायेगा और पछतायेगा
लोग थू थू करेंगे और तब बहुत घबराइएगा

ज़िल्लत अलग होगी फिर तू कसमें खायेगा
फिर भी अपने झूठ को तू सच कह बताएगा

कैसी ज़िन्दगी होगी जब झूठ पकड़ा जायेगा
बिना सिर पॉव के सब छोड़कर भाग जायेगा

ख़ुद से ख़ुद को छिपाकर भी कोई जीना है
छिपने की कीमत तू आज़ादी से चुकायेगा

सिर उठाकर चलने का अदब ही निराला है
सच बोल देख तो सही बहुत मज़ा आयेगा


झूठ बोला
सच के चक्कर में कितने ख़ुश्क हो गए हो
हँसना तो दूर मुस्कुराना भी भूल ही गए हो

कितने घमंडी हो गए हो तुम जानते भी नहीं
कोई काम पड़ जाये तो पहचानते भी नहीं

दुनियादारी से परे मचान पर चढ़े रहते हो
लोगों की तरक्कियों के देख सादे रहते हो

जब देखो दूसरों को त्रिस्कृत करते रहते हो
अपने आपको सदा प्रुस्कृत करते रहते हो

सच के चक्कर में तुम इतने अकड़ गए हो
लगता है जैसे किसी शीशे में जकड़ गए हो

हर जगह अपनी बात पर ही अड़ जाते हो
किसी ने कुछ कह दिया तो सड़ जाते हो

सच्चाई को जानो झूठ को पहचानो
सच निकला था सच्चाई जताने के लिए
झूठ निकला था आईना दिखाने के लिए

सच ने देखा बिना झूठ के उसकी क़द्र नहीं
झूठ तो बना उसका सहारा है पर सब्र नहीं

दोनों को समझ आयी और गले लगा लिया
हर सिक्के के दो पहलु हैं को सुलझा लिया

Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

A-163 सच के चक्कर में
Tuesday, March 10, 2020
Topic(s) of this poem: motivational
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