आलम दुसरा था.aalam dusraa thaa Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

आलम दुसरा था.aalam dusraa thaa

आलम दुसरा था

ना दिन ढले ना रात
बस होती रहे मुलाक़ात
कोई तो हो साथी ओर संगाथ
बस मेरे हाथ में हो उसका हाथ।

ऐसी पल क्यों आती नहीं?
मेरे मन को टटोलती नहीं
में खोया खोया सा रहता हूँ
सदैव कल्पना करता हु।

मन सब को पीछे छोड़ आया
बस आप में ही अटक गया और भा गया
करता हु खूबसूरत जीवन की कल्पना
दीवानगी नहीं है पर लगता है सुहाना।

सोता नहीं रात में भी
खोया रहता हूँ ख्वाब में भी
जानता हूँ ' ज्यादा दीवानगी अच्छी नहीं'
पर मन से आपकी छबि हटती ही नहीं।

बस जादू सा लगता है
मन को बहुत सुहाता है
वो फूल बैग में हर बार खिलता है
मेरी आँखों के सामने हास्य बिखेरता है।

' जब तक देखा ना था ' आलम दुसरा था
बेफ़िकराई थी और मन आवारा भी ना था
आज कल तो बस पाँव धरती पर टिकते ही नहीं
सुहानी सी सूरत देखते ही मन रुकता ही नहीं।

कह दो दिल से 'आप हमारे हो '
आसमान से अलग एक सितारे हो
कोई चाँद उसे पसंद करे या नहीं!
हम आपके बिना जिएंगे ही नहीं।


हम पर हमारा ही काबू नहीं
आप है की मानते ही नहीं
कर लो आज मुलाक़ात आखिरी
फिर ना सुनाना खोटी खरी।

Monday, December 29, 2014
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 29 December 2014

आलम दुसरा था ना दिन ढले ना रात बस होती रहे मुलाक़ात कोई तो हो साथी ओर संगाथ बस मेरे हाथ में हो उसका हाथ।

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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