बीच मुझे जीना है Bich Mujhe Jina Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

बीच मुझे जीना है Bich Mujhe Jina

बीच मुझे जीना है

चाहती हूँ सिर्फ उझाला
ओर रस्म को निभाना
दिन का काम मुझे बहुत कुछ सीखाता है
अपनेपन का एहसास दिलाता है।

चाहती हूँ हिरनी जैसा भागना
उछलना, कूदना और सम्हलना
किसको फुर्सत है आग से खेलना
खुदको बचाना और बच के रहना।

नहीं जानती क्या होंगे उसूल?
पर सब कुछ है कुबुल
हम नए नए है मझधार मे
नैया को लगाना उस पार है।

यदि में ऐसा जानती
तो कभी मुंह से न बोलती
न कभी जिक्र करती
और न हीं जबान खोलती।

न मुझे किसी से बैर रखना है
और नहीं जहर को चखना है
मुझे तो खेलना है आतश से
सही मायनो में तलाश है अपने आप से।

में सब्र कर लुंगी खुशियों के संग
भर दूंगी हजारो उस मे रंग
आसमान का आडंबर यहाँ देखना है
जीवन की बेचैनियों के बीच मुझे जीना है।

बीच मुझे जीना है Bich Mujhe Jina
Sunday, March 13, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 13 March 2016

में सब्र कर लुंगी खुशियों के संग भर दूंगी हजारो उस मे रंग आसमान का आडंबर यहाँ देखना है जीवन की बेचैनियों के बीच मुझे जीना है।

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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