डर लागे.. Dar Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

डर लागे.. Dar

डर लागे
रविवार, ३० दिसम्बर २०१८

मुझे डर लागे मन मांहि
भय ना जावे, सतावे यही
विचलित हो जावे, मन को भी रुलावे
बीती यादों को सामने लावे।

जीवन लगा मुझे सताने
मैंने बहुत बनाए बहाने
पर निकल ना पाया मन का वहम
प्रहार होता गयासहन करता गया अहम्।

वैसे तो मन है बड़ा चंचल
पर मेंकैसे पाऊं किसीका आँचल
कभी इस बात को सोचेकभी उस बात को
सताता रहे और सोने ना दे रात को।

मन मेरा कहता रहे बारबार
ना देखो किसी की आँख को आरपार
कुछ कहने से पहले करलो विचार
यहां से होती है निशानी सदाचार।

मन में ना रखूं अब कोई संशय
पर रखूं सदा नेक आशय
बड़े को बुलाऊँ कहकर महाशय
छोटे को सदा आशीर्वाद दिलाऊं।

हसमुख मेहता

डर लागे.. Dar
Sunday, December 30, 2018
Topic(s) of this poem: poem
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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