Donge Jawab दोगे जवाब रोज Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

Donge Jawab दोगे जवाब रोज

दोगे जवाब रोज

मे ना तब भी अकेला था
ना आज भी हूँ
सूरज की पहली किरब
आ जाती है सामने बनकर हिरन।

वो ही चंचलता
वो ही विविधता
वो हो नयन और नक्शा
मुझे चढ़ जाता हैअसुरी नशा।

में बैरागी प्रेम का
क्या काम है मुझे हेम का?
मुझे मिटटी के बरतन अच्छे है
कहनेका स्वाद बेंनमुन ओर सबसे लगता है।

हर चीज़ तरोताज़ा रखती है
जबान पर ताला पर हुस्न असली है
नहीं लगती हमें बेरुखी अपनी जान से
हम तो डरते है आपके फरमान से।

ना कहना किसी को
अपनी जुबान से दासताँ को
गलत समझे गे लोग
किस किस को दोगे जवाब रोज।

Donge Jawab दोगे जवाब रोज
Monday, May 2, 2016
Topic(s) of this poem: poem
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ना कहना किसी को अपनी जुबान से दासताँ को गलत समझे गे लोग किस किस को दोगे जवाब रोज।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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