दो दिनों की जिंदगी Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

दो दिनों की जिंदगी

दो दिनों की जिंदगी
चार दिनों का मेला
लेकिन हर समय
इंसान रहता अकेला।
भीड़ बहुत भारी है
मची मारामारी है
भले जाने की तैयारी है,
दीखता नहीं जाने की बेला।
साथ कुछ नहीं जाना है
लटक रही तलवार है
बहुत तेज धार है
आंखों को न दिखाई पड़ती
सूझता नहीं ' नवीन' ढेला।

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