दुर्भावना और कटुताdurbhavna Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

दुर्भावना और कटुताdurbhavna

दुर्भावना और कटुता

न किसी से बेर
ना हो यहाँ अंधेर
ना रह जाए हम बन के बधिर
मानुष, ना हो इतना अधीर।

साथ नहीं आनेवाला
अंत होगा बोखलानेवाला
अब पछताए होत क्या?
रह गयी हिस्से में मिटटी और रेत।

हमें क्या लेना इस संसार से
जब उड़ चले धरती से
छोटा छोटा दिखाई देता कालामानुस
आसमान बूला रहा है पास।

हमारे पास हमारे पंख
दुनिया सब देखकर दंग
कितने बेनमून है रंग?
विविधता में भी है मेरे संग।

उडना हमारा काम
कर्तव्य है हमारा नाम
गगन की और हमारा है प्रयाण
और क्या चाहिए आपको प्रमाण?

हम लोट आएँगे वापस
आप देखते रहिए हमारे साहस
आसमा हमारा देखे उसकी झलक
हम गायब हो जाएंगे जबकते ही आपकी पलक़।

ना कोई घर और नाही कोई विरासत
हम कहते चीज शतप्रतिशत
विभिन्ता में है समानता
ना हो कोई दुर्भावना और कटुता

दुर्भावना और कटुताdurbhavna
Sunday, November 12, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 12 November 2017

विभिन्ता में है समानता ना हो कोई दुर्भावना और कटुता

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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