ऐसी प्रतीति हरदम Esi Pratiti Hardam Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

ऐसी प्रतीति हरदम Esi Pratiti Hardam

ऐसी प्रतीति हरदम

ज़िंदगी का सच मेरे सामने है
सभी तो मेरे अपने है
कोई पराया नहीं लगता
बस मुझे मिलना अच्छा लगता।

दिल को जैसे सुकून मिलता है
दिल कॊ आनंद होता है जब कोई गले मिलता है
ना देखो अपने चहेते को तो मन रोता है
उदासी में मगन ओर परेशान हो जाता है।

चन्दन भी इतनी शान्ति नहीं देता
जितना आगाह उसका हँसी चेहरा देता
पता नहीं ये कैसा नग्न सत्य है!
जो मेरे सामने प्रत्यक्ष्य है।

शांति के लिए दूर चले जाना
अपने आप को योगी कहलाना
फिर भी शान्तो कोसो दूर पाना
ये कैसी है विडम्बना?

मुझे लगा मेरे स्वाभाव में ही खोट है
दिल की गहराई में उसकी चोट है
में उस क्षति को दूर नहीं कर पाया हूँ
अपने आपको बस पराया ही समजा हूँ।

मेरा प्रयास अब दिल से होगा
किसी का दिल कभी भी नहीं दुखेगा
मेरा हर लब्ज़ सच की झांकी कराएगा
मानव हूँ ऐसी प्रतीति हरदम कराएगा।

ऐसी प्रतीति हरदम Esi Pratiti Hardam
Monday, November 28, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 28 November 2016

मेरा प्रयास अब दिल से होगा किसी का दिल कभी भी नहीं दुखेगा मेरा हर लब्ज़ सच की झांकी कराएगा मानव हूँ ऐसी प्रतीति हरदम कराएगा।

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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