फिर क्यों ना सुधार लाए?
जलना
फिर उन्माद में उछलना
आत्मा को छलना
इसी की तो है हमें कामना?
युगो बीत गए
हम वहीँ रह गए
संत समागम सब बेकार
हम ठेहरे पाषाण तज़ुर्बेकार।
हमें क्यों हो किसीकी दरकार?
हम करते रहँगे दरकिनार
लोग ही बिलखते ना रह जाय रास्तेपर
हम तो चलते जाएंगे बिना परवाह रातभर।
ना हमें कोई सरोकार है
ना हीं करना है व्यक्त आभार
हम मस्त है अपने जीवन में
मौज ही मौजा है इस उपवन में।
वो जीवन ही क्या जिस में सुधार की गुंजाइश हो
अच्छे बन ने की कुछ नुमाइश हो
'अरे बन जाओ कुछ सुशील' की फरमाइश हो
हमें भी अब लगता है ईश की आजमाइश हो।
किसी की सुन लेना ही बेहतरी है
जीवन में कुछ तो हांसिल बात करनी है
वरना मर जाएंगे बिना कुछ करे
फिर क्यों ना सुधार लाए अपने जीवन में।
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem