जाति धर्म कै नशा Poem by Gaya Prasad Anand

जाति धर्म कै नशा

काव कही भाय
जाति धर्म कै नशा
अब खोपड़िप चढ़ कै बोलत है
आदमी दूसरे का कम
अपने का ज़्यादा तौलत है
लागत है धर्म कै काँटा
अब पसंघा होइ गवा
आदमी क्रूर, नीच
लुच्चा लफंगा होइ गवा

मौलिक रचना
गया प्रसाद आनन्द
मो.9919060170

जाति धर्म कै नशा
Saturday, April 5, 2025
Topic(s) of this poem: equality
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