सुब्हान अल्लाह Poem by Geet Chaturvedi

सुब्हान अल्लाह

रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं

सुबह उठकर हाथ-मुँह धोने से पहले ही भूल जाते हैं

हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करती

हम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आते

हमारी गफ़लत की अब उम्र होती जा रही है

हम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैं

हम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं

हमारे भीतर का बुद्ध दग़ाबाज होता जाता है

मद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोली

जब पता चलता है

शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी है

हमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती है

वे कौन-सी चीज़ें हैं, जिनने हमें नज़रबंद कर लिया है


हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैं

अंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है


हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरी

हमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहट

पानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीद

हम सबके पैदा होने का तरीका एक ही है

हम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहीं

कौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग से

क्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है?


अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों में

होता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तट

समुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंच

या घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलग

जिसकी बत्तियाँ बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से


हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी

हिस्से में साध सकते हैं संपर्क

तुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा


कुछ लोगों को शौक है

बार-बार इतिहास में जाने का

दूध और दही की नदियों में तैरने का

उन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैं

वे हमारी पशुता पर खीझते हैं

उन्हें बता दूँ ये बेबसी

हमारे लिए सिर्फ गोलियाँ बनी हैं

बंदूक की

और दवाओं की


फिर भी वह कौन-सी ख़ुशी है जो हमारे भीतर है अभी भी

कि हर शाम हम मुस्कराते हैं

अपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाज़ा बंद कर सो जाते हैं


कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वाले

मॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुख

चिता

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Geet Chaturvedi

Geet Chaturvedi

Mumbai / India
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