हम बात ही करना नहीं चाहते.. Ham Baat Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

हम बात ही करना नहीं चाहते.. Ham Baat

हम बात ही करना नहीं चाहते

हम बात ही करना नहीं चाहते
थक गए हम कहते कहते
किसी को परवाह कहाँ हमें देखने की?
झांककर सपनो को अपनाने की।

हम मनाते है दिल को
ओर कहते है पिगलने को
पर वो तो फिसलता ही रहता है
हमें झिल्लत ही देता रहता है।

ना कर नादानी मुझे छेड़ने की
बुरी आदत है यह तेरी पहले की
क्यों नजदीक आते हो और फिर छोड़ देते हो
पानी तो पिलाते हो पोधे को, पर फिर भी रोते रहते हो।

सूरज को अस्त होना अखरता है
चाँद रात होने पर ही निखरता है
हम ही है दिलझले जो अपने को संवार नहीं सकते
जाते सबकुछ है फिर भी कह नहीं सकते।

हम तो है किश्ती पे सवार
भले हो कोई करले पलटवार
नाही हम विचलित होंगे और नाही मूर्छित
बाकि सब हो जएगने विस्मित और चकित।

हम बात ही करना नहीं चाहते.. Ham Baat
Monday, April 25, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 25 April 2016

हम तो है किश्ती पे सवार भले हो कोई करले पलटवार नाही हम विचलित होंगे और नाही मूर्छित बाकि सब हो जएगने विस्मित और चकित।

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