हमारा लाल Hamara Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

हमारा लाल Hamara

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हमारा लाल

ना गीली हुई आँख
बस गीरी थोड़ी साख
इसने ये या कर दिया?
इंसानियत को शर्मसार कर दिया।

बस इतना सा ही!
मानवता विहीन दिलासा ही
चला गया वो माँ का सपूत था
माँ का एक ही बेटा था जो जो उसके सपने जीवंत रखता था।

देश के लोगो थोड़ा सा ही सोच लेना होगा
आप देश की फिफाजत ना कर सको तो कुछ नहीं होगा
देश की संपत्ति को नुक्सान ना पहुंचाना
अपनी माँ का चीरहरण ना होने देना।

आप क्यों लोगो के बहकावे में आ रहे है?
हमने कितने साल गुलामी में विताए है?
वो लोग चले जाएंगे बिना मदद किये
बस अपनी रोटी सेक कर आपको मुर्ख बनाकर।

क्यों मुफत चाहिए हमको सबकुछ भिखारी बनकर?
सरकार ने कहाँ से लाकर देना है आपको सेठ बनकर
देश में और गरीब भी है जो भूखे रहते है
हाथ फैला के जीते है लेकिन जिंदगी ख़त्म नहीं करते है।

दुनिया का उसूल है
बारिश अच्छी हो तो पैसा वसूल है
गरीब भी थोड़ा प्रेम से खा सकता है
कौन उनके बारे में सोचता है?

आप किसान है
विधि पर किसका फरमान है?
ना फेंके अपना सामान रोडपर
क्योंना बांटे उन गरीबों को जो सोते खाना ना मिलने पर!

आपका भी होगा अपनी जान ना गंवाए
थोड़ा सा समय दीजिए और धैर्य रखिए
हम को नौकरी भी चाहिए और अन्न भी
सोचते है तो हो जाते है खिन्न भी।

हमारा लाल वापस नहीं आएगा
देश जरूर उनकी शहादत को याद रखेगा
जब देश ही गुलाम होगा तो आप कहाँ जाएंगे?
सम्हाल के रखें अपने कोशल को कल जरूर आप समझेंगे।

हमारा लाल Hamara
Sunday, June 25, 2017
Topic(s) of this poem: poem
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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