jab khud hi... जब खूद ही पछतायेगा Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

jab khud hi... जब खूद ही पछतायेगा

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जब खूद ही पछतायेगा

तू जा, तू जा, तू जा
अपने गगन में तू उड़ जा
पंख तेरे सह नहीं पायेंगे
उड़ने की इच्छा, पर उड़ने नहीं देंगे

तेरे लिए पिंजड़ा घातक है
तेरी मुक्ति का बाधक है
चल उड़ जा पंछी मेरे आंगन से
प्यार करले विशाल गगन से

जग तुजे दूर से बहुत अच्छा दिखेगा
तॆरी दुनिया तु खुद ही रचेगा
खुद ही मालिक और खुद ही खुदा
न मज़बूरी कोई तेरे संग सदा

मुक्त विहारी तेरी दुनिया अलग है
पिंजड़ा तेरी पहचान नहीं है
तेरे को रहना है आजादी की छाँव में
बड़े बड़े पेड़ और छोटे छोटे गाँव में

अपना हो सवेरा और अपना ही मुकाम
फिर करनी क्यों कोशिश नाकाम
न रखना कभी किसी पर लगाम
येही है मेरा और खुदा का पैगाम

जब तू ही नहीं खुश तो आलम का क्या है?
येही तो रोना और पछताना क्या है
कर सको तो मुक्त सबको, एहसास तो अच्छा ही होगा
फुल को कर दो अलग उसकी ड़ाल से, फिर तो वो मुरझा ही होगा

जब बेड़ियाँ तुज को ऊपर से नहीं है मिली
फिर तू क्यों सोचे किसी को देना गुलामी
खुद का साँस लेना एक दिन बंद हो जाएगा
बाद में चाहने से क्या? जब खूद ही पछतायेगा

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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