ज़िंदा हूँ मगर Jinda Hun Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

ज़िंदा हूँ मगर Jinda Hun

ज़िंदा हूँ मगर ज़िंदा नहीं

ज़िंदा हूँ मगर ज़िंदा नहीं
कहना है मुझे पर दिल कहता नहीं
'वो थे मुझे पसंद' मगर कह सका नहीं
कारवां गुजर गया बस रुका ही नहीं।

हाथ मेरा ऊपर का ऊपर ही उठा रह गया
बस एक ही दुआ बार बार मांगता गया
वो कहीं भी रहे अपनों को सदा याद रखे
जो पीछे छूट गए है उनको सदैव मन में रखे।

उनका जीवन देश का भ्रमण ही है
वो एक जगह रहते ही नहीं है
बस रुक गए तो थोडा सा रुक गए
देखा ना देखा और फिर मूक हो गए।

मिलता है सदा प्यार उन लोगों का जिन के पास चाहत है
जो हसरत भरी निगाहों से देखते है ओर आहत हो जाते है
थोड़ा सा मन भर आता है और करीब जाने का दिल करता है
मंज़िल कभी नहीं मिलती उनको जो हमेशा डरता रहता है।

ज़िंदा हूँ मगर   Jinda Hun
Tuesday, November 1, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 09 November 2016

DrBharat Chablani nice Unlike · Reply · 1 · 4 mins

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Mehta Hasmukh Amathalal 09 November 2016

welcome himmat mehta Unlike · Reply · 1 ·

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Mehta Hasmukh Amathalal 01 November 2016

welcome ricky jaiswal Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 01 November 2016

मिलता है सदा प्यार उन लोगों का जिन के पास चाहत है जो हसरत भरी निगाहों से देखते है ओर आहत हो जाते है थोड़ा सा मन भर आता है और करीब जाने का दिल करता है मंज़िल कभी नहीं मिलती उनको जो हमेशा डरता रहता है।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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