कहे पर माफ़ी मांगी Kahe Par Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

कहे पर माफ़ी मांगी Kahe Par

कहे पर माफ़ी मांगी

नन्हे जब तू छोटा था
मेरे पास ही सोता था
बिस्तर भी बार बार गीला करना तेरी आदत सी हो गयी थी
तेरी नींद में खलेल ना पहुंचे इसलिए में थोड़ा सा भी हिलती नहीं थी।

समय का पता भी ना चला
तू तो एकदम जवान हो चला
अब मुझे नई दुल्हन लाने की चिंता लगी
तुझे में पिता सी लगने लगी।

तुझको पढ़ाया लिखाया
मैंने खूब महेनत से तुझे आघे बढ़ाया
इतना जरूर से सोचा 'अब मुझे नहीं चुकाना पडेगा किराया'
मेरी की हुई दुआ ने अब रंग दिखाया।

नै नवोढा ने पर छुए
मैंने भी उसे खूब आशीर्वाद दिए
पर ये क्या? लड़का बार बार तिरस्कृत करने लगा
बहु के सामने मेरा अपमान ओर बेहुदा बातें करने लगा।

बहु विचक्षण थी, वो सब समज गयी
उसने माता जी को समझाया और ढाढस बंधाई
'मेरी माँ बचपन में गुजर चुकी'
यह बात कहते कहते उसने ली एक हिबकी।

में शर्म से पानी पानी हो गयी
बच्चे के लालनपालन पर शंकाशील हो गयी
एक परजनी मुझे माँ केहकर पुकार रही थी
और मेरे खुद के बेटे से में लज्जित जो रही थी


एक दिन तो उसने हद ही कर दी
मेरी बांह पकड़कर घर से बाहर कर दी
अब तू कहीं भी अपनी व्यस्था कर ले
जो भी खर्चा किया है मेरे पर, उसका पैसा ले ले।

'उठो माताजी' में आपके साथ हूँ
'उसने थामा हाथ ओर कहा ' में देती साथ हूँ
यह सुनकर लालाजी शर्मा गए ओर पाँव पड गए
अपने कहे पर माफ़ी मांगी और फिर ढीले से पड गए।

कहे पर माफ़ी मांगी Kahe Par
Tuesday, November 8, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 22 November 2016

Deepak Kumar Exactly Unlike · Reply · 1 · 11 mins

0 0 Reply
Mehta Hasmukh Amathalal 08 November 2016

कहे पर माफ़ी मांगी उठो माताजी में आपके साथ हूँ उसने थामा हाथ ओर कहा में देती साथ हूँ यह सुनकर लालाजी शर्मा गए ओर पाँव पड गए अपने कहे पर माफ़ी मांगी और फिर ढीले से पड गए।

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