कस्तुरी... Kasturi Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

कस्तुरी... Kasturi

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कस्तुरी
शुक्रवार, ५ अक्टूबर २०१८

कस्तृरि मृग हो तुम
नहीं जानती अपने गुण
खुश्बु अपने पास छिपाए हो
फिर भी उसकी सुगंध से बिलख रही हो।

तुम ने दीया एक अमूल्य पल
मेरे में भी मची है हलचल
वो तो हुआही है कल
पर भर आते मेरे नयन।

बैठते, सोते और घूमते
चेहरा सामने ही आते
मेरे तेवर खिंच जाते
बस यादे गु यादे भर देते।

रात की नींदे वीरान
बस सूखा दिखता आसमान
ना तारे चमक रहे
और ना चंडी बहे।

बस ना ढूँढू में कहीं और
सामने हो फिर भी दिल मचाता शोर
अब ना रहा जाए और
हरा सोचो मन से और करो गौर।

हसमुख अमथालाल मेहता

कस्तुरी... Kasturi
Thursday, October 4, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 05 October 2018

welcome s r chandrslekha 1 Manage Like · Reply ·

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Mehta Hasmukh Amathalal 05 October 2018

बस ना ढूँढू में कहीं और सामने हो फिर भी दिल मचाता शोर अब ना रहा जाए और हरा सोचो मन से और करो गौर। हसमुख अमथालाल मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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