खा जाऊं, खा जाऊं
गुरूवार, ३१ मई। २0१८
उजड़ा मिला चमन
कहाँ से मिलेगा अमन
फ़ूलों मे नहीं महक
चिड़ियाँ भी नहीं करती चहक।
कैसे हम नंदनवनकरे?
कैसे पौधों को नवपल्लवित करे?
सिंचन तो हम कर लेंगे!
पर क्या पीछेवाले उसे सम्हालेंगे?
मेरे देश में पता नहीं?
प्रेम-महोब्बत की नदी सुख गई है
हर बात पर मजहब आ जाता है
सोते हुए सैतान को जगा जाता है।
"खा जाऊं, खा जाऊं"सैतान उठते ही भोजन की मांग करता है
सब डरे हुए है, कोई आगे नहीं आता है
बस एक राजकारणी, आगे आ जाता है
कहो प्रभु, हुकम करो, में सब कुछ दे सकता हूँ
शैतान सोच में पड जाता है
"ये कैसा इंसान है"
अपने ही आदमियों की बलि चढ़ा देना चाहता है!
एक कॉम से दूसरी कौम को भिड़ाना चाहता है।
आप कुछ भी मांग लो
बस मेरा काम कर दो
मेरी सत्ता वापस दिला दो
चारो और अराजकता फैला दो, और खुन की नदिया बहा दो।
"शैतान भी सोच रहा"मेरे से भी बढ़कर यहां लोग बस्ते है
अपने निजी स्वार्थ के लिए इंसानों का खून भी बहा सकते है
मधुमक्खी की तरह जहां भी मध दिखे, वहां मंडराने लगते है
भंवरों की तरह होले होले उसे चूस लेते है।
मक्कारी उनका मजहब है
बेईमानी इनकी आस्था है
इनका बस चले तो, ये देश भी बेच डाले
"मुंह में राम और बगल में छुरी"इस बात को तो सच ही कर डाले।
हसमुख अमथालाल मेहता
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मकारी उनका मजहब है बेईमानी इनकी आस्था है इनका बस चले तो, ये देश भी बेच डाले मुंह में राम और बगल में छुरीइस बात को तो सच ही कर डाले। हसमुख अमथालाल मेहता