प्रथम रूप में द्वेष रहित था
क्लेश रहित था मन मेरा
ज्यों-ज्यों वर्ष बीत रहे थे
बदल रहा था मन मेरा
चहक रहीं थी दुविधायें
ईर्ष्या श्रापित था मन मेरा
अंधकार में डूब रहा था
उत्तेजित उत्साहहीन था मन मेरा
कुछ न कर पाने की उलझन में
सुलग रहा था झुलस रहा था मन मेरा
इस जन्म-मरण के मोह जाल में
अटक रहा था भटक रहा था मन मेरा
इस जीवन-यापन के दर्पण में
किंकर्तव्यविमूढ था मन मेरा
अपने से ही प्रश्न पूछता
अकुलित व्याकुल था मन मेरा
अभय शर्मा
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