मिटटी की खुश्बू... Mitti Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

मिटटी की खुश्बू... Mitti

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मिटटी की खुश्बू
रविवार, १६ दिसम्बर २०१८

मौसम अलग हो,
ऋतुएंभी अलग हो
पर रूची एक सी हो
बस देखती एक ही चीज हो।

नहीं होती परख
यदि ना जानो उसका दुःख
बस अपने में मस्त रहो तो
और कुछ भी ना कहो तो

गुलशन तो फूलों से ही शोभता है
खुशबु भी तो उसी से आती है
दिलअरमानहोपर उस को आसमान न हो
समझो यदि सोचना असमान हो।

खुश्बूतो धरती सेही आती है
मन को आसानी से भीगा जाती है
एक तुम्ही हो जो नजदीक नहीं आती हो
कभी कभार आके मेरे मन को विचलित कर जाती हो।

खैर, फैसला भी उसीका और मन भी उसीका
हम तो ठहरे एक आदमी अबुध मन का
वो क्या जाने फूल और उसकी खुश्बू?
उसके लिए तो मिटटी की है आरजू।

हसमुख मेहता

मिटटी की खुश्बू... Mitti
Sunday, December 16, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 16 December 2018

खैर, फैसला भी उसीका और मन भी उसीका हम तो ठहरे एक आदमी अबुध मन का वो क्या जाने फूल और उसकी खुश्बू? उसके लिए तो मिटटी की है आरजू। हसमुख मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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