Mukh Sakshi Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

Mukh Sakshi

Rating: 5.0

मूक साक्षी बनकर देखते रहे

में नहीं जानता देशवासी क्या कहते है
में यह भी नहीं जानता उनके दिल में क्या है
मैंने कभी कोशिष ही नहीं की जाननेकी
बस जी रहा हु और राह देख रहा हुं मरनेकी

उन्हें आदत हो गयी है हमें लुट्नेकी
हमें आदत हो गयी है उनको सुननेकी
वो कहते क्या है और करते क्या है?
पता नहीं ये सब माजरा क्या है?

कोई कह रहा है देश जाय भाड़ में
चाहे वो बह जाय भीषण बाढ में
मेरे लिए क्या कर रहे हो?
दे दो जो मांग रहा हू फिर सत्ता में बने रहो

ये नहीं सुधरेंगे, हमें ही कुछ करना पड़ेगा
हमारी दुर्दशा करनेवालों को भुगतना पड़ेगा
इन्हें ना कोई ईमान है न कोई धरम
हमें ही धोने पड़ेंगे उनके करम

मुलायम 'मुलायम' बनके रह गया
माया का जादू न चला और पूरा राज ही ढेह गया
लाली अब आलू बेचेंगे और पासवान 'वांन ' चलाएंगे
ये तिकड़ी बदमास निकली अब हम उन्हें मजा चखाएंगे

लालू चारा खा गया और 'शरद' ने चाँद ढक् दिया
गारीं की प्याज और आलू ही गायब कर दिया
चीनी की मिठास पुरे जीवन के लिए फीकी कर दी
अब कहता है ' में नहीं लडूंगा'यारो ये तो हर ही कर दी

त्यागी का त्याग तो देखो
हेलिकोप्टर में कमाल तो देखो
पूरा दस टका अपनी जेब में
देश जाय जेह्न्नुम में

वढेरा करोडोपति या अर्बोपति बन गया
देश को उन्होंने अधोगति में धकेल दिया
मेरे देस को अब क्या देखना बाकी है?
पूरा नेहरु खानदान सरपे थोपना बाकी है?

एक कुंवारा रह जाएगा दिखाने के लिए
एक गद्दी छोड़ देगा बतानेके लिए
राज अपना चलता रहे, देश बर्बाद होता रहे
बस हम मूक साक्षी बनकर देखते रहे

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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