Nishtabdh Nisha Poem by Pushpa P Parjiea

Nishtabdh Nisha

Rating: 5.0

निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में
कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हृदय की इस सृष्टि पर
एक विहंगम दृष्टि कर जा

भीगी पलकें लिए नैनों में रैना निकल जाए
विचार-पुष्प पल्लवित हो
मन को मगन कर जाए

दूर गगन छाई तारों की लड़ी
जो रह-रह कर मन को ललचाए
ललक उठे है एक मन में मेरे
बचपन का भोलापन
फिर से मिल जाए

मीठे सपने, मीठी बातें,
था मीठा जीवन तबका
क्लेश-कलुष, बर्बरता का
न था कोई स्थान वहां

थे निर्मल, निर्लि‍प्त द्वंदों से,
छल का नामो निशां न था
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे,
तू शांति के दीप जला, इंसा जूझ रहा

जीवन से हर पल उसको
तू ढांढस बंधवा निर्मल कर्मी बनकर
इंसा के जीवन को
फिर से बचपन दे दे जरा

Friday, April 15, 2016
Topic(s) of this poem: alone
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 09 May 2016

मेरा सुझाव है कि जहाँ 'No Image Found' उसे डिलीट कर देना चाहिये और यदि कविता के साथ चित्र देना चाहते हैं तो Manage Poem में जा कर 'एडिट' के ज़रिये ऐसा करें. Thanks.

1 0 Reply
Rajnish Manga 15 April 2016

शब्दों का ऐसा संगीत इस कविता में झंकृत हो रहा है जो मन को मुग्ध कर लेता है. बचपन के भोलेपन का भी बड़ा प्यारा चित्र खींचा गया है. अंततः एक ऐसे संसार के सृजन की कामना है जो निर्मल, पावन, क्लेश मुक्त है. निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए, थे निर्मल, निर्लि‍प्त द्वंदों से, छल का नामो निशां न था

1 0 Reply
Pushpa P Parjiea 08 August 2017

so sweet , ... kavita me sangeet ko dekhna yane kavita ki unchaiyon ko pahchanna jise aapne pahchana hai bhai hardik abhar sah dhanywad..

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