पतझड़ का आह्वाहन... Patjhad Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

पतझड़ का आह्वाहन... Patjhad

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पतझड़ का आह्वाहन
सोमवार, १ अक्टूबर २०१८

रहने दो ना
किसी को नहीं है मना
पर मुझे छोड़ दो अकेली
नहीं चाहिए मुझे कोई सहेली।

मेरी वीरानी मुझे मंजुर है
दिल में यादें मौजूद है
उसका भी तो कोई वजूद है
बस मेरी गुमनामी कीव वजह खुद है।

ये पतझड़ ही मेरा सहारा है
सब कोई तो अपना ही है
मुझे वारबार क्यों ऐसा लग रहा है?
किसका गम मुझे सत्ता रहा है?

मेरी चीख ही मुझे सुनाई देती
मेरी आत्मा कहती है रोती रोती
तूने क्यों उझालो से महोब्बत की?
क्यों दस्तक दी या नौबत की?

बस मेरी आवाज दबी ही रहने दो
मेरी धड़कन को मुझे सुन ने दो
वो चीखचीख कर कह रही है
सावन में भी पतझड़ का आह्वाहन कर रही है।

हसमुख अमथालाल मेहता

पतझड़ का आह्वाहन... Patjhad
Sunday, September 30, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 01 October 2018

welcome rishi malhotra 1 Manage Like · Reply · 1m

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Mehta Hasmukh Amathalal 30 September 2018

बस मेरी आवाज दबी ही रहने दो मेरी धड़कन को मुझे सुन ने दो वो चीखचीख कर कह रही है सावन में भी पतझड़ का आह्वाहन कर रही है। हसमुख अमथालाल मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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