पत्थर तब तक
ऐसा नहीं लिखते
जो शब्द किसीको खलते हो!
सम्प्रदाय ही बात अलग है
विश्वास एक सौगात है।
हर कोई अपने आपको तीसमारखाँ समझता है
दूसरे को कमजोर और छोटा मानता है
बातबात पर उसकी बेइज्जती करता है
सरेआम मानहानि करता रहता है।
हम मूर्ति को पत्थर नहीं कहते
हम उन्हें हमारे आराध्य देव मानते
हमारे इष्टदेव है जो नित्य पूजा के लायक है
हम सभी उनके आघ्याकारी बालक है।
हजारों श्रद्धालु बाबा बर्फानी के दर्शन करते है
इतनी ऊंचाईपर जाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते है
जान हम कहते है सब धर्मोका सन्मान हो
फिर ये देखना जरुरी है की अपनी ही आस्था का अपमान ना हो।
यदि कोई पत्थर को सिर्फ पत्थर मानता है
वो उसकी आस्था है जो वो चलाता है
अंत समयपर उसे सब याद आ जाते है
अपने कर्मो के फल सामने ही दृश्यांकित हो जाते है।
पत्थर तब तक पथ्थर है जब तक उसमे प्राणप्रतिष्ठा नहीं होती
मूर्ति को हाथ लगाने से ही अपने में आंतरिक फेरफार होने लगते है
कलुषित विचार मृतप्राय होने लगते है
सादगी से मन प्रफुल्लित और धर्म के विचारो से भरने लगते है।
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