राह नहीं देखता.... Raah Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

राह नहीं देखता.... Raah

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राह नहीं देखता
शुक्रवार, २ नवंबर २०१८

आ गए जग में हम हँसते हँसते
बीत गए दिन खेलते खेलते
पता नहीं चाल कब जवानी आ गई
अपनी ताकत के जोरपर मुझे ललचा गई।

जवानी ने मेरे को घेर लिया
अपने बाहुबल में, में अंधा हो गया
अपने ही मद में मस्त होता गया
किसी को भी सुनी-नासुनी करता गया।

सब दिन एक सरीखे नहीं होते
अच्छे दिन जल्दी ही बीत जाते
"कब जवानी ढल गई"उसका पता ही नहीं चला
अब तो बाल भी पक गए और कल का इंतजार सताता

समय किसी की राह नहीं देखता
मौके का फायदा उठानेपर ही लाभ मिलता
जो मौक़ा चूक गया, मानो बहुत कुछ गँवा गया
फिर वो समय दोबारा उसके पास नहीं आया।

हसमुख अमथालाल मेहता

राह नहीं देखता.... Raah
Saturday, November 3, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 03 November 2018

समय किसी की राह नहीं देखता मौके का फायदा उठानेपर ही लाभ मिलता जो मौक़ा चूक गया, मानो बहुत कुछ गँवा गया फिर वो समय दोबारा उसके पास नहीं आया। हसमुख अमथालाल मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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