रौशनी और उझाला Roshni Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

रौशनी और उझाला Roshni

रौशनी और उझाला

मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं
गुजर जायेगी रही सही
क्यों में फ़िक्र करूँ उन बातों की?
जो आके रोज सताये फालतू की!

मेरे वजूद के पेहचाननेवाला बस एक ही है
'में उसे भगवान् कहूं या परवरदिगार ' बस मेरा ही है
में जैसे ही आँखे बंध करू 'उसके दर्शन हो जाते है '
सारे अनजान गुनाह जैसे माफ़ हो जाते है।

मैंने किसी से कुछ नहीं मांगना
बस सिर्फ उन खतरों से भागना
जो मुझे ललचा रहे है
मुझे खिंचा खिंचा सा महसूस करवा रहे है।

में अर्ज करूँ 'मुझे माफ़ कर दो '
अपनी गोदी में समालो
मुझे प्यार की भूख लगी है
आसमान को छुपके छुपके देखने लगी है

मैंने सर झुका किया और मन्नत मांग लिया
देना है तो दे देना एक छोटा सा बुझता हुआ दिया
में उसका जतन करुँगी और बुझने नहीं दूंगी
जगत में उझाला और रौशनी कायम कर दूंगी।

रौशनी और उझाला  Roshni
Monday, August 28, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 28 August 2017

मैंने सर झुका किया और मन्नत मांग लिया देना है तो दे देना एक छोटा सा बुझता हुआ दिया में उसका जतन करुँगी और बुझने नहीं दूंगी जगत में उझाला और रौशनी कायम कर दूंगी।

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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