रूठना और Ruthna Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

रूठना और Ruthna

रूठना और

मनाना और रूठ जाना
फिर धीरे से हंस जाना
माना ये सब प्रकृति के नियम है
और सब मनुष्य में कायम है।

में विशेष नहीं
केहने को शेष नहीं
फिर भी कहूँगी
ना कभी नहीं करुँगी।

पर ठेस पहुंचाता है
दिल को सताता है
क्यों वो चाहता है?
में चापलुसी करू? वो अपने आप क्या समझता है?

में सीधी सादी एक लड़की
देखती रहूँ सदा खिड़की
बस हवा का झुका मुझे सन्देश दे देता है
मन में अंदेशा नहीं आने देता है।

मैंने कभी बनावट करना नहीं सीखा
कभी नहीं किया हमला तीखा
बस प्रेम से मन को मनाया
उसके बड़े प्रेम से अपनाया।

आज मुझे गर्व है
प्यार एक पर्व सा है
सब को मनाना चाहिए अपनेपन से
मुक्त मन से और खुलेपन से।

रूठना और  Ruthna
Sunday, August 13, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 14 August 2017

मनाना और रूठ जाना फिर धीरे से हंस जाना माना ये सब प्रकृति के नियम है और सब मनुष्य में कायम है।... prakutika niyamko to man na hi hoga. Beautiful poem based on philosophy. Thanks for sharing.

0 0 Reply
Mehta Hasmukh Amathalal 13 August 2017

आज मुझे गर्व है प्यार एक पर्व सा है सब को मनाना चाहिए अपनेपन से मुक्त मन से और खुलेपन से।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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