सबकी आशीष... Sabki Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

सबकी आशीष... Sabki

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सबकी आशीष

शुक्रवार, २० जुलाई २०१८

मामला नहीं है निजी
जब आप उतर जाओ करने बदतमीजी
अभी तक तो आप कह रहे थे हांजी
अब क्यों है इतनी नाराजी।

जब आदमी हो जाता है बेकाबू
बिगड़ जाता है तराजू का संतुलन
आपके ना चाहते हुए भी जबान फिसलती है
मुंह से अनायास ही बात निकल जाती है।

हम ने देखा है तमीजी का दौर
बदतमीजी में वर्तन बेहूदा और
उम्र के बिलकुल विपरीत
सब लोग नकारेंगे ये रीत

मामला निजी ना रहकर होहो जाता उजागर
सब तरह से लगती है फटकार
लोग थू थू करते है वर्ताव पर
दुरी कर देते है लोग उसके पास आनेपर।

तमीजी और बदतमीजी का फर्क समझना होगा
अपने हर वर्तन पे इसका असर होगा
बड़े छोटे, युवान और बूझुर्ग सब की एक ही ख्वाहिश है
आचरण सही होने पर सबकी आशीष है।

हसमुख अमथालाल मेहता

सबकी आशीष... Sabki
Friday, July 20, 2018
Topic(s) of this poem: poem
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तमीजी और बदतमीजी का फर्क समझना होगा अपने हर वर्तन पे इसका असर होगा बड़े छोटे, युवान और बूझुर्ग सब की एक ही ख्वाहिश है आचरण सही होने पर सबकी आशीष है। हसमुख अमथालाल मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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