सबकुछ... Sabkuchh Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

सबकुछ... Sabkuchh

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सबकुछ
रविवार, २४ फरवरी २०१९

जगत का मालिक एक
पर उसके नाम अनेक
सब मानते है उसका अस्तित्व
और स्वीकारते है प्रभुत्व।

यदि उसके हाथ में "मोत" का हथियार नहीं होता
तो मानवजात को काबू में रखना मुश्किल हो जाता
सब दुसरे की जान के जानी दुश्मन बने रहते
टंटे-फसाद की जड़ बने रहते।

आज धर्म के नाम पर बड़ा शोर हो रहा
धर्म -परिवर्तन की प्रवृत्ति भी जरोपर चल रही
धर्म से मानवियों को जोड़ना अच्छी बात है
पर इसी बहाने जबरदस्ती प्रलोभन देना सराहनीय नहीं है।

इसी बहाने कई जंगे हो चुकी
मानवजात बहुत बर्बाद हो चुकी
फिर भी उनकी लालसा काम नहीं हुई
उसमे लगातार बढ़ोतरी ही हुई।

अंत में हमें जाना है उसके दरबार
फिर क्यों नहीं सोचते हम इसपर?
उसके नाम के लिए हमें क्यों सोचना?
"सब कुछ तो उसके हाथ में है" फिर हमें क्या है करना?

हसमुख मेहता

सबकुछ... Sabkuchh
Sunday, February 24, 2019
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 24 February 2019

अंत में हमें जाना है उसके दरबार फिर क्यों नहीं सोचते हम इसपर? उसके नाम के लिए हमें क्यों सोचना? " सब कुछ तो उसके हाथ में है" फिर हमें क्या है करना? हसमुख मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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