सर झुकाकर कलाम Sar Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

सर झुकाकर कलाम Sar

सर झुकाकर कलाम

जिंदगी हमसे रूठी हुई है
मुँह फेर के बैठी हुई है
फिर भी हम उससे खफा नहीं है
जीवन का सही दस्तूर यही है।

हम जरूर पुछेंगे
और रहत की सांस लेंगे
हमारे साथ ही ऐसा क्यों किया?
हमने तो दिलोजान से प्यार ही किया।

हमारे किस्मत नहीं था तो क्या हुआ?
इस बात ने हमें कभी विचलित नहीं किया
हम भी शान से सर उठाकर जी रहे है
पर किसी चीज़ का फसोस नहीं कर रहे है।

इंसानी झज्बा है
हमभी दिलरुबा है
दिल दे बैठे अनजाने से
अब दिलके रूठे रहने से क्या?

समझौता तो करना ही पडेगा
जिंदगी लम्बी है काटना ही पडेगा
फिर क्यों उसे रोकर गुजारे!
आसमान मेंअकेले तो रहते है तारे।

जिंदगी से हम अनजान है
फिर उसका सन्मान है
दिल में कभी गीला नहीं किया
बस हमेशा सर झुकाकर कलाम किया।

सर झुकाकर कलाम Sar
Friday, November 10, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 10 November 2017

जिंदगी से हम अनजान है फिर उसका सन्मान है दिल में कभी गीला नहीं किया बस हमेशा सर झुकाकर कलाम किया।

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Mehta Hasmukh Amathaal

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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